अभी नहीं तो कभी नहीं, धरती को बचाने के करने होंगे प्रयास

समय की मांग है कि हम अपनी जीवनशैली में बदलाव लाएं, प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करें, सुविधावाद को तिलांजलि देकर बढ़ते प्रदूषण पर अंकुश लगाएं अन्यथा मानव सभ्यता बची रह पाएगी, इसकी आशा बेमानी होगी।

ज्ञानेन्द्र रावत
वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद ड्ड

अब इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि वर्तमान में धरती विनाश केकगार पर है। विडम्बना यह है कि हम सब कुछ जानते-समझते हुए भी मौन हैं। दुनिया के अध्ययन-शोध इस तथ्य के जीते-जागते सबूत हैं कि यदि धरती को बचाना है, तो सभी देशों को पहले से ज्यादा गंभीरता और तेजी से एकजुट होकर कदम उठाने होंगे। कारण यह है कि जलवायु परिवर्तन के चलते विनाश की घड़ी की टिक-टिक हमें यह बताने के लिए काफी है कि शीघ्र ही कुछ नहीं किया गया तो समय हमारे हाथ से निकल जाएगा। हालात गवाह हैं कि अब ऐसी स्थिति आ गई है कि अभी नहीं तो फिर कभी भी नहीं। संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल आइपीसीसी की ताजा रिपोर्ट इसी खतरे की ओर इशारा कर रही है। यही वह मुख्य वजह है कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस को यह कहना पड़ रहा है कि अब हर मोर्चे पर तेजी से कदम उठाने की जरूरत है।

दरअसल, औसत वैश्वीकरण तापमान में बढ़ोतरी को औद्योगिक काल से पहले की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकने की दिशा में अब तक किए गए सारे के सारे प्रयास नाकाम साबित होत नजर आ रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि औसत तापमान में अभी तक 1.1 डिग्री की बढ़ोतरी हो चुकी है। आइपीसीसी की हालिया रिपोर्ट से गर्म होती धरती की भयावह तस्वीर सामने आई है, जो यह बताने के लिए काफी है कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से बचने के लिए 2040 तक यानी आने वाले 17 सालों में हमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल खत्म करना होगा। सबसे बड़ी बात तो यह कि औसत वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को लक्ष्य के भीतर रोकने के लिए 2019 की तुलना में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2035 तक 60 फीसदी कम करना होगा। यूएन महासचिव एंटोनियो गुटेरस कहते हैं कि आज के हालात में यह बेहद जरूरी है

कि हम जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर तत्काल रोक लगाएं। अमीर देशों को तो 2030 तक और गरीब देशों को 2040 तक इनका इस्तेमाल पूरी तरह खत्म करना होगा। विकसित देशों को 2035 तक कार्बन मुक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य पूरा करना होगा। यही नहीं गैस आधारित या यों कहें कि गैस संचालित पावर प्लांट भी पूरी तरह बंद करने होंगे। सच्चाई यह है कि इस रिपोर्ट में 2015 में जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचने की खातिर हुए पेरिस समझौते के बाद से अब तक आई सभी रिपोर्टों को सार रूप में समाहित किया गया है। असलियत तो यह है कि जलवायु परिवर्तन के खतरे अब हर ओर दिखाई देने लगे हैं। विडम्बना यह है कि इसके दुष्प्रभावों से पर्वतों पर दिनोंदिन कम होती जा रही बर्फ की ओर कम ध्यान दिया जा रहा है।

पानी के स्रोत ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। आने वाले दशकों में इन स्रोतों से पानी गायब हो सकता है, इसकी चिंता किसी को नहीं है। इन हालात में अगले लगभग छह दशकों में एक अनुमान के मुताबिक इनका या तो नामोनिशान मिट जाएगा या न के बराबर रह जाएंगे। तात्पर्य यह कि ये पर्वत बर्फ विहीन हो जाएंगे। आधुनिकीकरण के मोहपाश के बंधन के चलते दिनोंदिन बढ़ता तापमान, बेतहाशा हो रही प्रदूषण वृद्धि, पर्यावरण और ओजोन परत का बढ़ता ह्रास, प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन, ग्रीन हाउस गैसों का दुष्प्रभाव, तेजी से जहरीली और बंजर होती जा रही जमीन, वनस्पतियों की बढ़ती विषाक्तता आदि यह सब हमारी जीवनशैली में हो रहे बदलाव का भीषण दुष्परिणाम है। सच कहा जाए तो इसमें जनसंख्या वृद्धि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। इसने पर्यावरण, प्रकृति और हमारी धरती के लिए भीषण खतरा पैदा कर दिया है।

हम यह नहीं सोचते कि यदि प्राकृतिक संसाधन और हमारी जैव संपदा ही खत्म हो गई तब क्या होगा? जैव विविधता पर विपरीत असर के मामले में लैटिन अमरीका और कैरेबियन क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित हैं। यदि अब भी हम अपनी जैव विविधता को संरक्षित करने में नाकाम रहे और मानवीय गतिविधियां इसी तरह जारी रहीं तो मनुष्य का स्वास्थ्य तो प्रभावित होगा ही, विस्थापन बढ़ेगा, गरीब इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। तकरीब 85 फीसदी आद्र भूमि का खात्मा हो जाएगा, कीट-पतंगों के साथ बड़े प्राणियों पर बड़ा खतरा मंडराने लगेगा और प्राकृतिक संपदा में 40 फीसदी से ज्यादा की कमी आ जाएगी। इसलिए समय की मांग है कि हम अपनी जीवनशैली में बदलाव लाएं, प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करें, सुविधावाद को तिलांजलि देकर बढ़ते प्रदूषण पर अंकुश लगाएं अन्यथा मानव सभ्यता बची रह पाएगी, इसकी आशा बेमानी होगी।

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