सामान्य ज्ञान

कोलकाता से ट्राम की विदाई

कल्लोल चक्रवर्ती

कोलकाता में ट्राम को परिवहन के साधन से हटा कर सिर्फ विरासत के रूप में सीमित कर देना अदूरदर्शिता का उदाहरण है। पिछले ही साल कोलकाता ने ट्राम सेवा के 150 साल पूरे होने का जश्न धूमधाम से मनाया था। एक समय शहर के चार सौ रूटों पर चार सौ ट्राम चलते थे। एक दशक पहले भी पैंतीस रूटों पर करीब पौने दो सौ ट्राम चलते थे। अंत तक दो रूटों पर पंद्रह ट्राम चलते थे। नतीजतन ट्राम डिपो में करोड़ों रुपये के करीब 250 ट्राम सड़ रहे थे। ट्राम की विदाई की पटकथा तो वाम मोर्चा सरकार के दौर में ही लिखी जा चुकी थी। इसके पीछे महत्वपूर्ण इलाकों में ट्राम डिपो की जगहों को बेच कर हजारों करोड़ रुपये कमाने की मंशा सक्रिय थी। जब तृणमूल सरकार 2011 में आयी, तब कोलकाता में 37 ट्राम रूट थे, जो 2017 में घट कर 17 और 2022 में महज दो रह गये।

कोलकाता देश का आखिरी शहर था, जहां ट्राम चल रहे थे। देश में ट्राम का इतिहास भी कोलकाता से शुरू हुआ था। कोलकाता की सड़कों पर 24 फरवरी, 1873 को पहली बार घोड़े द्वारा खींचे जाने वाली ट्राम सेवा शुरू हुई थी, जो सियालदह से आर्मेनियन घाट स्ट्रीट तक 3.8 किलोमीटर तक थी। वर्ष 1874 में घोड़े से चलने वाली ट्राम सेवा मुंबई में भी शुरू हुई। वर्ष 1880 में लॉर्ड रिपन ने कोलकाता में इस सेवा को नये सिरे से शुरू किया। अब ट्राम स्टीम इंजन से चलने लगे, जिससे उनकी गति बढ़ी, पर प्रदूषण भी बढ़ा। चेन्नई में पहली बार बिजली चालित ट्राम सेवा 1895 में शुरू हुई। यह सेवा स्टीम इंजन वाली सेवा से बेहतर साबित हुई, क्योंकि इससे प्रदूषण नहीं होता था। धीरे-धीरे कानपुर, दिल्ली, मुंबई, नासिक और पटना में ऐसी सेवाएं शुरू हुईं। वर्ष 1886 में पटना में ट्राम परिवहन के लोकप्रिय साधन थे। साल 1902 में कोलकाता में भी बिजली चालित ट्राम सेवा शुरू हुई। पटना पहला शहर था, जिसने सवारी कम होने के कारण 1903 में ट्राम सेवा बंद कर दी। फिर 1933 में नासिक, 1953 में कानपुर, 1953 में मद्रास, 1963 में दिल्ली और 1964 में मुंबई में ट्राम सेवा बंद हो गयी।

 
 

लेकिन कोलकाता में ट्राम सेवा न सिर्फ जारी रही, बल्कि लोकप्रिय परिवहन माध्यम बने रहने के अलावा साहित्य और फिल्मों को भी इसने जाने-अनजाने प्रभावित किया। ट्राम दुर्घटना में मारे गये जीवनानंद दास ने अपनी कविता में ट्राम को आदिम सर्पिणी के रूप में देखा था। सत्यजित राय से लेकर मृणाल सेन और ऋत्विक घटक ने कोलकाता को चित्रित करने के लिए हावड़ा ब्रिज और विक्टोरिया मेमोरियल के बाद ट्राम को अपनी फिल्मों में दिखाया। अनेक हिंदी फिल्मों में कोलकाता के ट्राम हैं। वर्ष 1943 में दूसरे विश्वयुद्ध के समय अंग्रेज जब हावड़ा ब्रिज को खोलने का साहस नहीं कर पा रहे थे, तब रात के अंधेरे में ट्राम ही सवारियों को पुल पार कराने का जोखिम उठा रहे थे। वर्ष 1953 में किराये में एक पैसे की वृद्धि से कोलकाता में तूफान खड़ा हो गया और वाम राजनीति को पश्चिम बंगाल की राजनीति में पांव जमाने का मौका मिला। ट्राम की वजह से ही कोलकाता की सुदूर ऑस्ट्रेलिया के शहर मेलबॉर्न से जुगलबंदी बनी। दोनों देशों के बीच 1996 में ‘ट्रामयात्रा’ नामक एक सोसायटी बनी। इसके जरिये मेलबॉर्न की तरह कोलकाता के ट्रामों को सजाने की शुरुआत हुई और ट्राम लाइब्रेरी भी शुरू की गयी। करीब दो दशक पहले जीवनानंद दास की प्रसिद्ध कविता वनलता सेन के नाम पर ‘वनलता’ नाम से एक हेरिटेज ट्राम रूट भी तैयार किया गया।

 
 

लेकिन धीमी गति से चलने वाले ट्राम को जाम लगने का कारण बताया जा रहा था। यह भी कहा गया कि ट्राम के कारण कोलकाता की छवि सुस्त शहर की बन रही है और दूसरे शहरों की तुलना में कोलकाता की सड़कों पर स्पेस सबसे कम है। आर्थिक अभाव, खराब रख-रखाव, कम सवारियां, फ्लाईओवर निर्माण, कोलकाता मेट्रो के विस्तार, ट्राम की सुस्त रफ्तार और ‘ट्राम को ज्यादा जगह चाहिए’ की धारणा ने भी परिवहन के साधन के रूप में इसे बेपटरी कर दिया, पर विशेषज्ञ बताते हैं कि कोलकाता की सड़कों पर जाम लगने का कारण ट्राम नहीं हैं, क्योंकि ट्राम पटरी पर से गुजरते हैं। जाम का असल कारण बेतरतीब हॉकर्स, यत्र-तत्र पार्किंग और ऑटो, बस और निजी वाहनों की अनियंत्रित भीड़ है। दुनिया के लगभग चार सौ शहरों में आज ट्राम चल रहे हैं और यह संख्या बढ़ती जा रही है क्योंकि ट्राम एक साथ जितनी सवारियां ले जा सकता है, ट्रेन और मेट्रो छोड़ कर और कोई इतनी सवारियों को एक साथ नहीं ढो सकता। वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के दौर में बिजली के वाहन बढ़ रहे हैं। यूरोप के जिन देशों ने बीती सदी के 40 और 50 के दशकों में ट्राम को चलन से बाहर कर दिया था, उन्होंने 70 के दशक में तेल संकट के मद्देनजर ट्राम को फिर से महत्व दिया, पर कोलकाता में इसका उल्टा हुआ। तुर्की के नाटककार महमत मुरान इलादान का कहना है कि जिस शहर में ट्राम नहीं हैं, वह शहर कम शिक्षित, कम काव्यात्मक लगता है। पता नहीं, खुद को देश की सांस्कृतिक राजधानी कहने वाले कोलकाता ने इस टिप्पणी की अनदेखी कैसे कर दी!

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

 

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