छत्तीसगढ़ इतिहास
छत्तीसगढ़ का सबसे पुराना नाम क्या है?
प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ "दक्षिण कोशल" के नाम से जाना जाता था। सभी ऐतिहासिक शिलालेख, साहित्यिक और विदेशी यात्रियों के लेखों में, इस क्षेत्र को दक्षिण कोशल कहा गया है। आधिकारिक दस्तावेज में "छत्तीसगढ़" का प्रथम प्रयोग १७९५ में हुआ था।
राज्य में वर्तमान अनुमानित जनसंख्या 3 करोड़ 22 लाख है, इसलिए ओबीसी 41 प्रतिशत के साथ सर्वाधिक हो गए हैं।
राज्य में वर्तमान अनुमानित जनसंख्या 3 करोड़ 22 लाख है, इसलिए ओबीसी 41 प्रतिशत के साथ सर्वाधिक हो गए हैं।
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"आदिवासी परंपरा: छत्तीसगढ़ के भंगाराव देवी के न्यायालय में देवी-देवताओं को सज़ा मिलनी है"
नगरी: धमतरी जिले की सिहावा क्षेत्र की वनांचल और आदिवासी बाहुल्य समुदाय की ऐसा क्षेत्र, जहां कभी बस्तर राजघराने का सीमा हुआ करता था। मगर परिवर्तन की दौर में वर्तमान में,यह क्षेत्र बस्तर से अलग हो चुका है।बहरहाल इस इलाके के आदिवासी समुदाय,आज भी बस्तर राज परिवार की देव परंपरा प्रतिवर्ष निभाते आ रहे हैं।जिस तरह से इंसान अगर असंवैधानिक कार्य करते हैं और उनका परिणाम उन्हें न्यायिक हिरासत से गुजरना पड़ता है उसी प्रकार,ऐसा पारंपारिक देव अदालत जहां इष्ट देवी देवताओं के ग़लत की सज़ा देवी देवताओं के न्यायाधीश जिन्हें भंगाराव माई के नाम से लोग मानते हैं उनकी न्यायालय में खड़ा होना पड़ता है,हमारे और आपके लिए ये बात भले ही चौंकाने वाली बात हो,मगर छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के आदिवासी समाज के लिए ये बात पुरखों से चली आ रही है। भंगाराव देवी के प्रमुख गायता घुटकले निवासी प्रफुल्ल सामरथ और स्थानीय देव गायता चैतराम मरकाम लिखमा निवासी ने बताया आदिवासी समाज की रुढ़िजन्य देवप्रथा परंपरा अनुसार कुलदेवी-देवताओं को, भी अपने आप को साबित करना पड़ता है वो भी बाकायदा अदालत लगाकर। ये अनोखी अदालत ‘भंगाराव माई के दरबार’ में लगती है
भंगाराव माई का दरबार धमतरी जिले के कुर्सीघाट बोराई मार्ग में भादो के शुरुआती महीने में लगते हैं।बस्तर राजघराने से चली आ रहा सदियों पुराने,इस दरबार को देवी-देवताओं के न्यायालय के रूप में जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि भंगाराव की मान्यता के बिना देव सीमा में स्थापित कोई भी देवी-देवता कार्य नहीं कर सकते।
हर साल भादों के महीने में आदिवासी देवी-देवताओं के न्यायधीश भंगा राव माई का जात्रा होता है.इस वर्ष भी बड़े ही धूमधाम से बाजागाजा के साथ लिखमा घुटकल से विधि विधान से कुल देवता की सेवा अर्जी उपरांत देवी देवताओं का आगमन भंगाराव देव ठाना जात्रा में सम्मिलित हुए। जहां दर्शन और मनोकामनाएं को लेकर कई हजारों की संख्या में धमतरी,उड़ीसा और बस्तर के श्रद्धालु जात्रा में पहुंचे।
चर्चा के दौरान देव परिवार के प्रमुख महरू राम मरकाम,पुनाराम सामरथ,दुलार सामरथ,आरके सामरथ, गंगाराम सामरथ,उदेराम सामरथ,मंगऊ राम सामरथ,बीजूराम मरकाम,फूलसिंग साक्षी,राम सामरथ,जगत सामरथ,मिश्रीलाल नेताम,ईश्वर नेताम,मनोज साक्षी जिनकी अगुवाई में जात्रा की विधि विधान पुर्वक सेवा अर्जी से देव कार्य का,परंपरा अनुसार शुभारंभ हुई।जात्रा के दौरान सोलह परगना सिहावा,बीस कोस बस्तर और सात पाली उड़ीसा के देवी-देवता जात्रा में सम्मिलित हुए।वहीं इस देवजात्रा में महिलाओं का शामिल होना परंपरा अनुसार वर्जित है।
आदिवासी समाज की पुरातन मान्यता है उनकी अपनी देव पद्धति है अपनी देवी-देवताओं की सेवा अर्जी परंपरा अनुसार करते हैं अपनी हर समस्याओं को उनके सामने रखते हैं,ताकि उन पर किसी तरह की विपत्ती न आए मगर जब देवी-देवता उनकी समस्याओं पर खरा नहीं उतरते, यूं कहें कि अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पाते या असफ़ल हो जाते हैं तो गायता पुजारी व ग्रामीण जनों की शिकायत के आधार पर भंगाराव माई के अदालत में देव को कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है।जहां इनकी सुनवाई होती है, अगर आरोप लगते हैं या दोषी पाए जाते हैं तो अराध्य देवी देवताओं को भी सज़ा मिलती है. आदिवासी समाज की परेशानियां दूर नहीं कर पाते तो उन्हें दोषी माना जाता है।भंगाराव की उपस्थिति में कई गांवों से आए,देवी-देवताओं की एक-एक कर देव प्रथा अनुसार देव प्रथा अनुसार शिनाख़्त किया जाता हैं.
फिर देव परिसर में ही अदालत लगती है. देवी-देवताओं पर लगने वाले आरोपों की गंभीरता से सुनवाई होती है. आरोपी पक्ष की ओर से दलील पेश करने सिरहा, पुजारी,गायता,माझी, पटेल आदि ग्राम के प्रमुख भी उपस्थित होते है। दोनों पक्षों की गंभीरता से सुनवाई के पश्चात आरोप सिद्ध होने पर तत्काल फ़ैसला भी सुनाया जाता है,देव परिसर के कुछ दूरी पर एक नाला है.इसे आम भाषा में कारागार भी कह सकते है। दोष साबित होने पर देवी-देवताओं के लाट,बैरंग,आंगा,डोली आदि को इसी नाले में रवानगी कर दिया जाता है इस तरह से देवी-देवताओं को सजा दी जाती है.
और इस जात्रा के पश्चात ही आदिवासी समाज की प्रमुख पर्व नवाखाई मनाने का दिन तिथि देव आदेशानुसार निर्धारित होती है।
क्षेत्र के जिला पंचायत सदस्य मनोज साक्षी क्या कहते हैं जात्रा को लेकर,, आदिवासी समुदाय वास्तव में प्रकृति और पुरखा पेन शक्ति के पूजक हैं और भंगाराव देवी की जात्रा को अनादिकाल से यह देव परंपरा को सिहावा परगना,उड़ीसा और बस्तर के आदिवासी समुदाय निभाते आ रहे हैं।
"हबीब साहब की 100वीं जयंती: छत्तीसगढ़ के महान कलाकार को सलाम, सीएम बघेल ने किया नमन"
रायपुर: छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी, लोक-कला, लोक-रंग से अगर दुनिया के कई देश परिचित हैं तो उसकी एक बड़ी वजह हबीब साहब रहे हैं. वही हबीब साहब जिनकी आज 100वीं जयंती है. आज विशेष मौके पर एक बार फिर हबीब साहब को सुरता(याद) कर रहे हैं. एक ऐसे महान कलाकार जिन्होंने छत्तीसगढ़ की धरा में जन्म लिया और यहां की मिट्टी की खुशबू को देश-दुनिया में पहुंचाने का काम किया. अपनी अद्भुत नाट्य शैली के लिए विश्व विख्यात रहे हबीब तनवीर रायपुर के रहने वाले थे. प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हबीब तनवीर जी की 100वीं जयंती पर उन्हें नमन किया है.
सीएम भूपेश बघेल ने ट्वीट कर लिखा है कि ‘छत्तीसगढ़ के गौरव, अंचल की कला को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाने वाले प्रसिद्ध रंगकर्मी स्व. हबीब तनवीर जी की जयंती पर हम सब उनका पावन स्मरण करते हैं. राज्य शासन द्वारा रंगकर्म के क्षेत्र में हबीब तनवीर जी के योगदानों को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उनके नाम से पुरस्कार प्रदान करने की भी घोषणा हमने की है. हबीब तनवीर जी को कई अवार्ड एवं वर्ष 2002 में पद्म विभूषण सम्मान मिला. वे 1972 से 1978 तक राज्यसभा सांसद भी रहे. उनका नाटक चरणदास चोर, एडिनवर्ग इंटरनेशनल ड्रामा फेस्टीवल (1982) में पुरस्कृत होने वाला ये पहला भारतीय नाटक गया. उनकी प्रमुख कृतियों में आगरा बाजार (1954) चरणदास चोर (1975) शामिल है.’
हबीब तनवीर जी का जीवन परिचय
हबीब साहब का जन्म 1 सितंबर 1923 को बैजनाथ पारा में हुआ था. तनवीर साहब ने स्कूली शिक्षा रायपुर से और स्नातक की उपाधि नागपुर से ली. इसके बाद उन्होने एमए की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पूरी की. बचपन से कला के प्रति आकर्षित रहने वाले हबीब साहब ने एमए की शिक्षा लेने के बाद खुद को पूरी तरह से थियेटर के लिए समर्पित कर दिया. उन्होंने भारत के साथ-साथ कई देशों की यात्राएं की और दुनिया भर के रंगकर्म का अध्ययन किया. नाट्य विधा की बारीकियों को समझने के बाद हबीब साहब ने भोपाल में नया थियेटर के नाम से नाट्य संस्था की स्थापना की.
नया थियेटर के जरिए उन्होंने नाट्य यात्रा प्रारंभ की. इस यात्रा के दौरान उन्होंने यह महसूस किया कि छत्तीसगढ़ की लोक-कला, लोक-रंग को दुनिया के सामने भव्य मंचों में लाया जाए. लिहाजा उन्होंने प्रदेश भर से नाचा कलाकारों को इक्कट्ठा किया. उन्होंने लोक कलाकारों को नया थियेटर में शामिल कर अपनी नई पारी की शुरुआत की. इस दौरान उन्होने मिट्टी की गाड़ी नाटक का निर्देशन किया. यह संस्कृत में लिखित नाटक का छत्तीसगढ़ी रूपांतरण था, जो उनका पहला महत्वपूर्ण छत्तीसगढ़ी नाटक बना.
बताते हैं कि नाचा कलाकारों को साथ लेकर जब हबीब साहब देश-दुनिया की यात्रा पर निकले तो दुनिया भर के नाट्य प्रेमी प्राचीन लोक नाट्य शैली को देखकर दंग रह गए. जिस तरह से एक जौहरी पत्थर को तराशकर उसे चमकदार हीरा बना देता है, कुछ इसी तरह से हबीब साहब ने नाचा के कलाकारों को तराशकर उन्हें नाट्य मंचों का हीरा बनाने का काम किया था. उन्होने दुनिया को छत्तीसगढ़ की रंग-परंपरा, छत्तीसगढ़ के रंगकर्मियों की कलाकारी और यहां की समृद्ध संस्कृति को दिखाया.
तनवीर साहब के जीवन के बीच एक महत्वपूर्ण जानकारी जिसे साझा करना जरूरी है वह है दाऊ मंदराजी. छत्तीसगढ़ी नाचा-गम्मत में जहां दाऊ मंदराजी, रामचंद्र देशमुख का नाम लिया जाता है, वहीं नाचा-गम्मत को नाचा कलाकारों के साथ उसे रंगकर्म के रूप में विश्व विख्यात बनाने का श्रेय हबीब तनवीर को जाता है. हबीब तनवीर ने आगरा बाजार, मोर नाँव दामाद गांव के नाँव ससुराल, चरनदास चोर, बहादुर कलारिन, राजरक्त से जैसे कई चर्चित नाटको का निर्देशन किया. ये वो नाटक थे जिसने छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के कलाकारों की पहचान पूरी दुनिया में कराई.
छत्तीसगढ़ी भाषा में निर्मित चरन दास चोर नाटक इतना प्रसिद्ध हुआ कि पूरी दुनिया ने जाना की छत्तीसगढ़ की नाचा रंग-परंपरा कितना समृद्ध और विशाल है. चरन दास चोर में चोर की भूमिका अदा करने वाले स्वर्गीय पद्मश्री गोविंद राम निर्मलकर को रंगकर्मियों के बीच एक बड़े मंचीय नायक के रूप में उभार दिया.
हबीब साहब के कुछ प्रमुख छत्तीसगढ़ी नाटक
चरनदास चोर, बहादुर कलारिन, मोर नाँव दमाद, गाँव के नाँव ससुराल, मिट्टी की गाड़ी
छत्तीसगढ़ी लोक-गीतों, पहनावा का विशेष प्रयोग